Friday 25 December 2015

मेरी नाजुक नज़्में

चाँद को तराश कर बड़ी मेहनत से
एक क़लम बनाई है मैंने
और जला कर तारों को
बनाई है ये सियाही
सोचता हूँ के कुछ नज़्में लिख के जाऊँ
रात के कागज़ पे आज!
तुम बस इतना करना कि अपनी आँखों की अलमारी जल्दी से खोल कर 
उठा कर इन सारी नज़्मों को
बंद कर लेना उस अलमारी में
महफूज़ रहेंगी!
यक़ीनन कोई तो है रक़ीब मेरा
जो हरगिज़ नहीं चाहता की ये नज़्में तुम तक पहुँचे!
वरना कोई सूरज की आग जलाने की जद्दोजहद में क्यों जुटता भला?
जल्दी करो...
ये कागज़ अब जल जाएगा...
ये नज़्में झुलस झुलस कर मिट जाएंगी...
बड़ी नाजुक हैं
ये चाँद के क़लम और तारों की सियाही से रात के कागज़ पे लिखी मेरी नज़्में!

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बस यूँही