कभी ग़लती से भी छूना नहीं नज्मों को मेरी |
इन्हें बस दूर से देखो; नहीं तो जल ही जाओगे!
Monday 11 July 2011
Thursday 7 July 2011
कोई अर्थ है अस्तित्व का?
शब्द चारों ओर मंडरा रहें
अर्थ की तलाश में व्यर्थ ही |
व्यक्त होने की आस लिए
शब्दों की गूढ़ तलाश में
अस्वस्थ मन से भटक रहें अर्थ भी |
क्या करें?
क्या बोलें?
केवल भय है मौन का
क्या इसीलिए ये बोल हैं?
केवल न होने की कल्पना है भीषण
क्या इसीलिए है होने का प्रयोजन ?
कुछ भी ना करना यह भी तो होता है कुछ करना
सिर्फ होना; चलों इसी को कहते हैं जीना
हमारे तथाकथित 'करने' का उपहास
करता होगा ही 'वह' भी
पर सोचें भी तो क्यों?
आखिर 'वह' भी ऐसा क्या करता है
केवल 'होने' के अलावा ?
Friday 1 July 2011
काफ़िर ही सही
बैठा था चिंतन में डूबा
नदिया के तट पे अकेला
हाँ... अकेला ही शायद!
तभी अचानक नजरें उठीं ऊपर
उस अनादि अनंत आसमान में
देख गगन में होती अविरत
एक अनोखी नीलधवल हलचल
लगा
मानो बूढ़े खुदा के बाल लहरा रहें हों...
काफ़िर ही सही
पर ख़याल इतना भी बुरा नहीं
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आज जुदा हो रहे हैं... उस लम्बी जुदाई से पहले! कहते हैं: अपना एहसास दिलाती है मौत आने से पहले!
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शब्दोंसे परे भावोंसे भरे कुछ ऐसे क्षण मैं लाया हूँ जीवन में तेरे मै आया हूँ तू मान इसे संजोग सही या ईश्वर का संकेत कोई तू पूर्ण कहाँ, मै...
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उसने कहा भूल जाओ भूल जाओ मुझे सदा के लिए मैंने कहा मुमकिन नहीं न तो मैं ख़ुद को भुला सकता हूँ न ही ख़ुदा को